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‘तो अब तुम मास्टर बनोगे?’

By | नवंबर 4, 2014

उत्तराखण्ड में खटीमा के करीब एक गाँव है भड़ाभुड़िया। यह गाँव इन दिनों यहाँ के स्कूल में हो रहे प्रयासों के लिए जाना जाता है। प्रकाश पाण्डे उन युवा शिक्षकों में से हैं जिनसे भविष्य के लिए उम्मीद रोशन होती है। प्रकाश ने प्राइमरी शिक्षक बनने का सपना बचपन से आँखों में पाला हो ऐसा भी नहीं है। लेकिन जब वे इस रास्ते पर चले तो उन्हें एहसास हुआ कि जिन्दगी के इस रंग से तो वो अब तक अपरिचित ही थे। वो कभी किसी बात की शिकायत नहीं करते। जो संसाधन और बजट उन्हें स्कूल के लिए मिलता है, उसी में उन्होंने स्कूल के लिए एल.सी.डी., वॉटर फिल्टर, खेल का सामान और बेहतर खाने का इंतजाम किया हुआ है। स्कूल में शत-प्रतिशत नामांकन है और प्रकाश का समुदाय से जो खूबसूरत रिश्ता है वो तो देखते ही बनता है।

‘तो अब तुम मास्टर बनोगे?’

‘इस सवाल ने जाने कितने लोगों को शिक्षक होने से रोका होगा। या न जाने कितनों के उत्साह पर पानी फेरा होगा। यह हमारे ही देश में होता है कि प्राइमरी शिक्षक से प्रमोट होकर प्रिंसिपल बनते हैं या आगे के ओहदों पर जाते हैं जबकि दूसरे देशों में तो प्रमोट करके प्राइमरी टीचर बनाया जाता है। यह तो ज्यादा जिम्मेदारी भरा और ज्यादा महत्वपूर्ण काम है।’ युवा शिक्षक प्रकाश पाण्‍डे जब यह बात कह रहे थे तो उनके भीतर चल रही ढेर सारी उथल-पुथल भी बयान हो रही थी।

प्रकाश नई पीढ़ी के शिक्षक हैं। उन्हें देखकर ‘थ्री ईडियट्स’ का रैंचो-फुनसुकवांगड़ू याद आता है जो बड़ा साइंटिस्ट है लेकिन चुपचाप दूर किसी गाँव में बच्चों को पढ़ाने का सुख ले रहा है। क्योंकि यही उसका जुनून था। विज्ञान के नए-नए फार्मूले बच्चों के लिए खेल हैं। किताबें ऊब से नहीं, जीवन से भरी हैं। जिन्‍दगी जैसे यहाँ खुलकर साँस ले रही हो।

प्रकाश शुरू से प्राइमरी अध्यापक नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने भी समाज के देखे हुए सपनों में ही खुद को खंगाला था। पी.सी.एस. की तैयारी की, पी.सी.एस. जे की तैयारी की, लेक्चरर होना चाहा। सफलता थोड़ी-थोड़ी दूर से लौटती रही। एक दिन  बी.टी.सी. का फॉर्म भर दिया। प्राइमरी टीचर हो गए। तथाकथित भद्र समाज का पहला चुभता हुआ सवाल यही था, ‘तो अब तुम मास्टर बनोगे?’ प्रकाश ने बुझे मन से इस पेशे में पाँव रखा। बस एक रोजगार की चाहत लिए। लेकिन इस दुनिया में पाँव रखते ही उनकी जिन्‍दगी मुस्कुरा उठी। हमारे भीतर हमारी ही न जाने कितनी सम्‍भावनाएँ दम तोड़ती रहती हैं, ऐसे ही मौकों पर हमें यह बात समझ में आती है। लेकिन ऐसे मौके हमारी जिन्‍दगी में कितने आते हैं, कैसे आते हैं यह भी गौर करने वाली बात है। अक्सर हम खुद अपनी जिन्‍दगी के नए मौकों के आगे ताला डालकर बैठ जाते हैं।

 प्रकाश बताते हैं कि ‘भले ही मैंने कभी प्राइमरी का अध्यापक बनने के बारे में न सोचा हो, भले ही मैंने बेमन से इस दुनिया में कदम रखा हो लेकिन सच मानिए आज लगता है कि इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता था। बच्चों के साथ होता हूँ तो जिन्‍दगी के वो सारे गिले-शिकवे बहुत दूर ही जाते हैं, सार्थक जिन्‍दगी की एक राह मिली है।’

प्रकाश उत्तराखण्ड के एक सुदूरवर्ती गाँव भड़भुड़िया में अध्यापक हैं। उधमसिंह नगर से जब हम सुबह इस स्कूल के लिए निकले थे तो सत्तर किलोमीटर का रास्ता बहुत लम्‍बा लग रहा था लेकिन इस गाँव के इस स्कूल में आकर ऐसा लगा कि बदलाव का जो रास्ता यहाँ के शिक्षक, प्रधानाध्यापक, बच्चे, समुदाय के लोग, अभिभावक, भोजनमाता सब मिलकर तय कर रहे हैं वो तो बहुत लम्‍बा है।

67 बच्चों वाले इस स्कूल की खासियत यह है कि यहाँ सब पहली पीढ़ी के बच्चे हैं। उनके माता-पिता या तो मजदूर हैं या किसान। काफी लोग विस्थापित हैं। दूसरी खास बात यह है कि यहाँ बच्चों की उपस्थिति सौ प्रतिशत होती है। और तीसरी खास बात यह है कि यहाँ सब खुश रहते हैं। प्रधानाध्यापक कृष्ण लाल से लेकर भोजनमाता तक सब उत्साह से भरे हुए। उसी सरकारी बजट में जिसके अक्सर कम होना का रोना रोया जाता है इस स्कूल में एल.सी.डी. है, कंप्यूटर है जिस पर बच्चों को फिल्में दिखाई जाती हैं, छोटी सी लाइब्रेरी है, पीने के साफ पानी के लिए वाटर फिल्टर हैं। प्रकाश कहते हैं कि बच्चे स्कूल आते समय बहुत खुश होते हैं और जाते समय उदास। वो समय से पहले ही स्कूल आ जाते हैं... खेलते हैं... काम करते हैं। छुट्टियाँ न बच्चों को पसन्‍द हैं, न टीचर्स को क्योंकि यहाँ सबका मन लगता है।

वो बताते हैं यह बेहद खूबसूरत दुनिया है... कितना कुछ है यहाँ करने को। कितना सुकून है कुछ कर पाने का, बच्चों के साथ इकसार हो पाने का। मुझे लगता है इस प्रोफेशन की सुन्‍दरतम चीजों से हम अनभिज्ञ ही रहते हैं। अच्छाई बुराई तो हर पेशे में होती है लेकिन यहाँ जो है वो अद्भुत है। एक पूरी पीढ़ी हमारी ओर उम्मीद से देख रही है। हमारा पढ़ा-लिखा, सोचा-समझा, इनके साथ मिलकर निखरता है। बच्चों की खिलखिलाहटें हमारे अन्‍दर की सारी कड़वाहट, अवसाद को पोंछ देती हैं। प्रकाश इस स्कूल की सफलता का श्रेय पूरे स्टाफ को देते हुए खुद को विनम्रता से अलग कर लेते हैं। स्कूल के प्रिंसिपल हों या भोजनमाता प्रकाश सबके पीछे खड़े होते हैं शायद इसीलिए वे समय से काफी आगे खड़े नजर आते हैं। एक क्लास में जाती हूँ तो सारे बच्चे एक लय में उठते हैं और एक स्वर भी उठता है गुड मॉर्निंग मैम...। ‘क्या आप मुझे अपनी क्लास में आने देंगे?  मुझे भी आपके साथ पढ़ना है,’ मैं कहती हूँ तो बच्चे संकोच के साथ मुस्कुराते हैं। ‘मैं सचमुच आपके साथ पढ़ना चाहती हूँ ...कौन बिठायेगा मुझे अपने साथ बोलो? ’ धीरे-धीरे पूरी कक्षा के हाथ खड़े हो जाते हैं।

स्कूल आते समय रास्ते में मिले धान के खेतों की जो खुशबू साथ हो ली थी, वापस जाते समय उस खुशबू में बच्चों की खिलखिलाहटें, आने वाले कल की उम्मीद और प्रकाश जैसे शिक्षकों का हौसला भी शामिल था। छूट रहे गाँव का नाम दोहराती हूँ भड़ा-भुडि़या....आपने पहले कभी सुना था क्‍या ? मैंने तो नहीं सुना था।


प्रतिभा कटियार, अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन,देहरादून। फाउण्‍डेशन द्वारा प्रकाशित ‘उम्‍मीद जगाते शिक्षक’ से साभार।

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