उत्तराखण्ड के बागेश्वर जिले में पहाड़ की तलहटी में गरुड़ से पास्तोली मार्ग पर लगभग 3 किलोमीटर पक्की सड़क पर एक गाँव है चौरसों। इस छोटे से गाँव के किनारे पर स्थित है एक उच्च प्राथमिक विद्यालय। 8-10 घर भी दिखाई पड़ते हैं थोड़ी सी दूरी पर। दोनों तरफ खेत भी हैं। हम स्कूल पहुँचे तो बाहर ही हेमचन्द्र लोहुमी मिल गए। वे हमारा ही इन्तजार कर रहे थे। आसपास लगभग पाँच किलोमीटर के दायरे में पाँच-सात गाँव हैं और वहाँ पाँच-छह स्कूल और भी चलते हैं। यह स्कूल अभी चार बरस पहले ही स्थापित हुआ है। इसमें पहली बार कुल मिलाकर 10 बच्चों ने दाखिला लिया था और उसी समय तीन शिक्षक भी नियुक्त हुए थे ।
हेमचन्द्र लोहुमी शिक्षण के साथ-साथ प्रभारी प्रधानाध्यापक के रूप में अन्य कामकाज भी देखते हैं। वे बताते हैं कि जब स्कूल खुला था तो यह स्कूल कम और भवन ही ज्यादा दीखता था। इसमें कुछ कमरे थे और एक चारदिवारी। रसोई और कुछ फर्नीचर भी जोड़ लीजिए, तो भी था तो यह भवन ही। इसको एक स्कूल में बदलने की जिम्मेवारी हमारी थी। ऐसा हम सभी शिक्षक साथी सोचते थे। स्कूल समय में हम बच्चों को पढ़ाते और छुट्टी के बाद कुदाल वगैरह लेकर स्कूल को सुन्दर बनाने में लग जाते थे। जब गाँव के लोगों ने स्कूल की छुट्टी के बाद भी हमें ये सब करते देखा तो कुछ लोग हमारी सहायता के लिए आगे आ गए।
इससे गाँव के लोगों से मिलना-जुलना शुरू हो गया। वो कभी हमारे स्कूल में तो कभी हम उनके घर। बाल गणना से भी समुदाय से सम्बन्ध बनाने में बहुत मदद मिली। गाँव के लोग न केवल
हमारी मदद के लिए आगे आए बल्कि अपने बच्चों को भी स्कूल में भेजना शुरू किया। सिलसिला शुरू हुआ और चलता गया ।
अब हमारे सामने एक चुनौती थी कि जो बच्चे स्कूल में आएँ वो कुछ सीखकर जाएँ। हम सब साथी सुश्री कंचन वर्मा, सुश्री उमा परिहार जी तथा श्री मोहन चन्द्र तिवारी जी, जब भी समय मिलता आपस में बैठकर अपनी शैक्षणिक चुनौतियों को एक-दूसरे के साथ साझा करते। इससे एक तरफ हमें अपनी कक्षा कक्षीय चुनौतियों का सामना करने में मदद मिलती तो दूसरी और हम एक-दूसरे द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषयों की प्रक्रियाओं को भी समझ रहे होते। आज जरूरत पड़ने पर हम सभी विषयों में कुछ न कुछ करने में सक्षम हैं तो यह शायद हमारी इन्हीं साझा बैठकों की चर्चाओं का परिणाम है।
अभिभावक देखते हैं कि उनके बच्चे घर पर बैठकर भी पढ़ाई करते हैं। जब भी कोई बच्चा अनुपस्थित होता है तो बच्चा स्वयं या फिर उसके अभिभावक स्कूल में आकर या फिर फोन से हमें सूचना दे देते हैं। समय समय पर हम स्कूल में व्यावसायिक कोर्स भी आयोजित करते हैं। जिसमें गाँव के ही लोग मदद करते हैं। बाल मेले में भी अभिभावक बच्चों की मदद करते हैं। हमारे स्कूल से पढ़कर बहुत से बच्चे हाईस्कूल में पहुँच गए हैं। इन स्कूलों के अध्यापक जब इन बच्चों की सराहना करते हैं तो हम खुद भी बहुत प्रोत्साहित होते हैं। और खुद की पीठ स्वयं ही थपाथपा लेते हैं।
ऐसा भी बहुत बार हुआ कि हममें से किसी को व्यवस्था कि लिए आस-पास के अन्य स्कूलों में जाना पड़ा। हम सब मिल बैठकर इसका समाधान निकालते ताकि किसी एक शिक्षक को दिक्कत न हो। कभी एक जाता, तो कभी दूसरा। हमने इस अवसर का भी लाभ उठाया। जब भी हम दूसरे स्कूलों में जाते तो वहाँ के बच्चों से बात करते, अभिभावकों से मिलते, शिक्षकों से संवाद करते। इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावक भी आते-जाते हमारे स्कूल में आकर हमसे मिलते। इस दौरान हमने आपसी सहयोग और समुदाय की मदद से स्कूल में झूला, फिसल पट्टी लगवा ली। स्थानीय विधायक जी की मदद से बच्चों के लिए फर्नीचर की व्यवस्था भी कर ली। अभिभावक ये सब देखते तो उनको भी अच्छा लगता था। हम गाँव भम्रण के दौरान अभिभावकों को इन सुविधाओं के बारे में भी बताते। इस सबसे यह हुआ कि हमारे स्कूल में नामांकन साल दर साल बढ़ता गया और बढ़ता जा रहा है। आज कुल मिलाकर 90 बच्चे हैं हमारे स्कूल में।
मध्याह्न भोजन का भी समय हो गया था। सभी बच्चे कतार में बैठे थे। शिक्षक-शिक्षिकाएँ भी भोजनमाता की मदद कर रहे थे बच्चों को भोजन कराने में। इस दौरान हमने ये बात छेड़ दी कि इस योजना से आपकी शैक्षणिक गतिविधियाँ कितनी बाधित होती हैं। उनका जवाब था इससे हमारी गतिविधियाँ बिल्कुल भी प्रभावित नहीं होतीं। हम एक बार में ही काफी दिनों के लिए राशन खरीद लेते है। भोजन बनाना भोजन माता का काम है। जब हम बच्चों को खाना खिलाने में मदद करते हैं तो उसकी गुणवत्ता भी देख लेते हैं।
अच्छा भोजन बनाना भोजन माता की जिम्मेदारी है और वह उसे बखूबी निभा रही है। रही बात मध्याह्न भोजन योजना के आँकड़ों के भरने की तो शायद ही उसमें हमारा प्रतिदिन पाँच-दस मिनट से ज्यादा समय लगता हो। सप्ताह में एक बार स्कूल की छुट्टी के बाद कुछ समय बैठकर बाकी सूचनाएँ अपडेट कर देते हैं। भोजन माता की मदद तथा आँकड़ों को भरने में कोई समय नहीं लगता लेकिन यदि गुणा भाग में ज्यादा दिमाग लगाएँगें तो फिर तो समय लगेगा ही। आप समझ ही गए होगें मैं क्या कहना चाह रहा हूँ, हेमचन्द्र बोले।
स्कूल भवन बड़े ही सुन्दर ढंग से बनाया गया है। समुदाय का भी पूरा पूरा सहयोग मिला है निर्माणकार्य के दौरान स्कूल में सुन्दरता के लिए भी पूर्व ग्राम प्रधान ने काफी काम कराया है। चार दिवारी बनने के बाद भी कुछ जमीन गाँव के लोगों द्वारा दान में दी गई थी। जिस पर कक्ष का निर्माण कर भवन की आवश्यकता को पूरा किया गया।
हम चाहते है कि यहाँ पर सबसे अधिक बच्चें हों या यूँ कहें कि सब बच्चे यहीं हों। आज हमारे स्कूल में 90 बच्चे नामांकित हैं जबकि अन्य किसी भी स्कूल में ये संख्या 40 से ऊपर नहीं है। पास ही अयारतोली गाँव में सहायता प्राप्त स्कूल चलता है उसमें लगभग 30-35 बच्चे हैं। उस स्कूल के अध्यापक अपने पॉकेट से पैसा खर्च कर बच्चों को पाठ्य-पुस्तक उपलब्ध कराते हैं। उनके बच्चे भी हमारे यहाँ आना चाहते हैं। लेकिन ऐसा होगा तो तो उनकी नौकरी पर बन आएगी। हमने तय किया है कि वहाँ के बच्चे हम नहीं लेगें। हमें एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।
हम जो भी करते हैं आपस में मिल-बैठकर तय करते हैं। जहाँ भी सम्भव होता है गाँव के लोगों को जरूर शामिल करते हैं चाहे उनकी आवश्यकता हो या नहीं। आखिर बच्चे तो उन्हीं के हैं। चुनौतियाँ तो हर समय आती हैं। जो आती हैं उसका हल मिल-जुल कर निकालते हैं।
मूल आलेख तथा फोटो : विपिन चौहान, अज़ीम प्रेमजी इंस्टीटयूट फॉर लर्निंग एंड डेवलपमेंट, उत्तराखण्ड, देहरादून सम्पादन : राजेश उत्साही