यह बात अच्छी हो या बुरी, मानव समाजों में स्कूली व्यवस्थाएँ अब स्थापित हो चुकी हैं। घर में ही स्कूलिंग को छोड़ दें तो स्कूल चाहे मुख्य धारा का हो या वैकल्पिक, बच्चे घर और माता-पिता से दूर वयस्कों के एक और समूह के पास जाते हैं, जिन्हें शिक्षक कहते हैं और यहाँ वे एक ऐसी गतिविधि के लिए जाते हैं जिसे हम शिक्षा कहते हैं। स्कूलों में शिक्षा कमोबेश स्पष्ट लक्ष्यों के साथ की जाने वाली गतिविधि है। स्कूलों ने ज्ञानार्जन के इस प्रोजेक्ट के एक बड़े हिस्से को (व्यावसायिक तथा आर्थिक मायनों में) अपने व्यापार के तौर पर ले लिया है। स्कूल व्यक्तियों को भविष्य में किसी पेशे के लिए तैयार करने की आशा करते हैं।
स्कूल जाना बस एक नियम ही नहीं है : यह तब तक के लिए ही एक मानक है जब तक कि आपके लिए इसका खर्च वहन करना सम्भव न हो। उनमें से अधिकतर माँ-बाप के लिए, जिनके लिए ऐसा कर पाना सम्भव हो, शिक्षा उनके बच्चों के बौद्धिक विकास, व्यावसायिक जगह बना पाने, सामाजिक स्तर पर ऊपर की ओर गतिशीलता और कई अन्य ऐसे ही लेकिन विभिन्न कारणों से स्पष्ट तौर पर आवश्यक है। कुछ लोग शिक्षा को एक मानवीय इन्सान को पोषित करने की ओर प्रवृत्त एक आध्यात्मिक गतिविधि के रूप में देख सकते हैं।
अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन की शैक्षिक पत्रिका लर्निंग कर्व जून,2018 में प्रकाशित कृष्ण हरेश का यह लेख पूरा पढ़ने के लिए नीचे दी गई पीडीएफ अपलोड करें।
कृष्ण हरेश