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शिक्षण के भागीरथी प्रयास

By | अगस्त 1, 2018

बच्चों का ठहराव सुनिश्चित करना मुमकिन है

कहते हैं कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया न तो स्कूल के दरवाजे से शुरू होती है और न ही स्कूल की चारदीवारी से निकलने के बाद समाप्त हो जाती है। सीखने की प्रक्रिया तो हर जगह और हर समय घटित हो रही होती है। सीखने की इस प्रक्रिया में स्कूल और समुदाय के प्रगाढ़ सम्बन्ध शिक्षण की प्रक्रिया को उद्देश्यपरक बनाते हैं। स्कूल अपने समुदाय के भविष्य के नागरिक तैयार करने की जिम्मेदारी निभाते हैं और ये भावी नागरिक वापिस समाज में लौटकर उसकी प्रगति में अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। इसलिए एक स्कूल के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने उस समुदाय को समझे, जिसके मध्य वह स्थापित है और उसके संसाधनों का उपयोग करके ज्ञान निर्माण का प्रयास करे। क्योंकि जब तक शिक्षकों के द्वारा शिक्षार्थियों के समुदाय और उसके संसाधनों को समझने का कोई प्रयास नहीं किया जाता है तो शिक्षार्थियों के सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में कुछ खास मदद नहीं मिलती है। इसके विपरीत जब एक शिक्षक अपने शिक्षार्थियों के परिवेश को समझते हुए प्रयास करता है तो बच्चे सीखने-सिखाने की इस प्रक्रिया में रूचि के साथ जुड़ते हैं।

शिक्षार्थियों के परिवेश को समझने से किस प्रकार शिक्षक बच्चों की उपस्थिति, ठहराव और सीखने की प्रक्रिया को सुनिश्चित कर सकता है। इसका एक उदाहरण है, राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय नालवा और उसमें काम कर रहे एकल शिक्षक श्री भागीरथ मीणा।

राजस्थान के प्रतापगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 27 किलोमीटर दूर पहाड़ियों के मध्य बसा एक गाँव, नालवा। पहाडियों के इर्दगिर्द बसा होने के कारण यहाँ आबादी की बसावट एक जगह न होकर बिखरी हुई है। कुछ 5 अलग-अलग जगहों पर बसे हुए घरों की कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 1050 है। गाँव के लोगों में कोई भी कक्षा 10 से अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है। यहाँ के निवासियों की आजीविका का मुख्य साधन खेती, जाखम बाँध से मछली पकड़ना और बेचना, मनरेगा आदि ही है। इसके अलावा यहाँ से लोग जोधपुर रोजगार के लिए पलायन करते हैं।

इन अलग-अलग जगह बसी हुई बस्तियों के बीच एक पहाड़ी की टेकरी पर स्थित है, राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय नालवा। इस विद्यालय की स्वीकृति 1984 में मिली थी और 1985 में यहाँ पर कक्षाएँ शुरू हो गई थीं। तब यह प्राथमिक विद्यालय था और इस वर्ष यानि 2018 में यह विद्यालय क्रमोन्नत कर दिया गया। वर्तमान में यहाँ 1 से 6 तक कक्षाएँ संचालित हैं और इन सभी कक्षाओं को पढ़ाने का कार्य विद्यालय में नियुक्त एकमात्र शिक्षक भागीरथ मीणा (शैक्षिक योग्यता - BA, BSTC) हैं।

भागीरथ जी की नियुक्ति इस विद्यालय में 2015 में हुई थी। उस समय विद्यालय में नामांकन था 63 लेकिन उनका ठहराव सुनिश्चित नहीं था। भागीरथ जी से बातचीत करने पर उन्होंने बताया कि मार्च 2015 में वे विद्यालय में पहली बार आए थे। उस समय यहाँ पर तीन बच्चे आते थे, कभी यह संख्या थोड़ी बढ़कर दहाई अंक के करीब पहुँच जाती थी। लेकिन उससे अधिक बच्चों की उपस्थिति या ठहराव विद्यालय में देखने को नहीं मिलता था। उनके आने के बाद, जो एकमात्र शिक्षिका इस विद्यालय में काम कर रही थीं, उनका दूसरे विद्यालय में स्थानान्तरण हो गया।

नए सत्र (2015-16) की शुरुआत में शिक्षक ने बच्चों की उपस्थिति और ठहराव की चुनौती से पार पाने के लिए समुदाय में सघन सम्पर्क किया और अभिभावकों से बच्चों के विद्यालय न आने के कारणों पर बातचीत की। बातचीत में जो मुख्य कारण निकलकर आए, वो इस प्रकार रहे -

  • पहले विद्यालय में काम कर रहे शिक्षक और बच्चों की भाषा अलग-अलग थी। बच्चे स्थानीय भाषा में बात करते थे और शिक्षक हिन्दी में। जिसके कारण बच्चों को शिक्षक की बात समझने में परेशानी होती थी और शिक्षक को बच्चों की।
  • उससे पहले भी जो शिक्षक काम करते थे, वे प्रतापगढ़ जिले से बाहर (पूर्वी राजस्थान) के थे, जो स्थानीय समुदाय के तौर-तरीकों, उनकी आवश्यकताओं और चुनौतियों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाए।
  • विद्यालय में कुछ बुनियादी सुविधाओं, जैसे - बैठने के लिए दरियाँ आदि का भी अभाव था।

भागीरथ जी, स्थानीय समुदाय से ही ताल्लुक रखते थे। ऐसे वे समुदाय के बच्चों के सामने आने वाली चुनौतियों और उनके सीखने के तौर तरीकों के अच्छे से वाकिफ थे। अतः उन्होंने समुदाय के मनोभावों को समझते हुए उन्हें विश्वास दिलाया कि वे अपने बच्चों को विद्यालय भेजें। वे अपनी ओर से बच्चों के लिए हरसम्‍भव प्रयास करेंगे। उनके समुदाय के साथ सघन सम्पर्क और अभिभावकों को विश्वास दिलाने पर उन्होंने अपने बच्चों को विद्यालय भेजना शुरू किया। जब बच्चे विद्यालय आने लगे तो शिक्षक ने बच्चों से बातचीत, उनसे सहज सम्बन्ध बनाने पर अधिक ध्यान दिया ताकि उनका ठहराव सुनिश्चित किया जा सके। उन्होंने आरम्भ में किताबों को परे रखते हुए निम्नलिखित कुछ प्रक्रियाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित किया।

उन्होंने बच्चों को विभिन्न प्रकार के स्थानीय व अन्य खेल खिलाना शुरू किया। वे विद्यालय का समय समाप्त होने के बाद भी वहाँ ठहरते और उन्हें खेल खिलाते। धीरे-धीरे बच्चे उन खेलों में पारंगत हुए और उन्होंने ब्लॉक व जिला स्तरीय खेल प्रतियोगिताओं में भागीदारी की।

कभी बच्चों को विद्यालय के निर्धारित गणवेश में आने को लेकर बाध्य नहीं किया। बच्चे जिस भी प्रकार के कपड़ों में आते, उस पर टीका-टिप्पणी करने की बजाय वे बच्चों के साथ क्या काम करना चाहिए, इस पर ध्यान देते।

बच्चे जब किसी स्थानीय उत्सव या विवाह आदि में जाने की बात कहते तो उन्हें मना नहीं करते बल्कि जब भी बच्चे इस तरह की बात कहते तो वे स्वयं भी उनके साथ चले जाते। इस प्रक्रिया में वे अपनी ओर से भी कुछ प्रस्ताव रखते कि चलिए आज तो आप लोग चले जाइये लेकिन इसके बाद आपको अमुक काम (खेल या पढ़ने से सम्‍बंधित कोई कार्य) करना होगा। इससे प्रक्रिया में बच्चों को जब लगा कि शिक्षक उनकी बात मान रहे हैं तो उन्हें भी शिक्षक की बात माननी चाहिए। इस प्रक्रिया ने शिक्षक और बच्चों के बीच आपसी विश्वास को प्रगाढ़ बनाने का काम किया।

आरम्भ में जब कोई बच्चा देर से भी (जैसे - लंच के बाद भी) विद्यालय आता तो वे उसे वापिस जाने को नहीं कहते बल्कि वे उसे कक्षा में बैठने की अनुमति देते।

बच्चों का पढ़ाने के लिए उन्होंने सीधे पाठ्यपुस्तकों का उपयोग न करते हुए अन्य संसाधनों और गतिविधियों के माध्यम से बच्चों को सिखाने की कोशिश की, जैसे - उन्होंने गणित विषय पर काम करने के लिए खेल मामाजी ने लड्डू खाए, कितने खाए, कितने खाए...., विद्यालय फर्श पर बिछे कोटा स्टोन के टाइल्स के माध्यम से गिनवाना, बच्चों को गिनने के लिए कंकड़-पत्थर और जमीन का उपयोग करना, बच्चों के समूह को बरामदे में एकत्र करके कुछ बच्चों को उस समूह से अलग करना और पुनः शामिल करना आदि तरीके काम में लिए। इसी प्रकार उन्होंने हिन्दी भाषा में काम करते हुए सभी पाठ के सार को वे पहले बच्चों को स्थानीय भाषा में सुनाते और चर्चा करते थे चूँकि विद्यालय में वे एकल शिक्षक थे, ऐसे में विद्यालय को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक था कि प्रक्रियाओं को इस प्रकार स्थापित किया जाए कि बच्चे स्वयं अपने काम को करने की ओर आगे  बढ़ें। इसके लिए उन्होंने बाल संसद का गठन किया। बाल-संसद के गठन ने एकल शिक्षक होने की चुनौती का सामना करने में काफी मदद की है। इसके माध्यम से उन्होंने बच्चों को विद्यालय की गतिविधियों (जैसे - प्रार्थना, साफ-सफाई, मिड-डे मील, खेल खिलाना आदि) का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी थी। अब बच्चे स्वयं इन सभी कामों की व्यवस्था को अच्छे से कर लेते हैं।

उक्त सभी प्रक्रियाओं का परिणाम यह है कि वर्तमान सत्र (2018-19) में विद्यालय में 84 बच्चों का नामांकन है। जिसमें प्रतिदिन 80 से अधिक बच्चे विद्यालय में उपस्थित रहते हैं। हमने शिक्षक से यह भी पूछा कि क्या कभी उन्हें यह बात परेशान नहीं करती कि वे एक शिक्षक हैं और 6 कक्षाएँ, इस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि सर, मैं तो यह सोचता हूँ कि आज में बच्चों के लिए क्या कर सकता हूँ। दूसरे शिक्षक जब आएँगे तो और बेहतर कर पाएँगे। शायद उनका यही सकारात्मक दृष्टिकोण उनके और इस विद्यालय के प्रति बच्चों के लगाव का कारण है।

बच्चों के उपस्थिति और ठहराव की चुनौती से पार पा लेने के बाद अब उनका लक्ष्य बच्चों को उनके कक्षा स्तर के अनुरूप लाने का है, जिसके लिए वे कुछ नित नए रास्ते तलाशने में जुटे हुए हैं।


प्रस्‍तुति : वीरेन्‍द्र कुमार, अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन, प्रतापगढ़, राजस्‍थान

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